सिखों के प्रथम गुरु गुरु नानक देव का प्रकाश उत्सव बड़े हर्ष उल्लास के साथ देश-विदेश में मनाया जा रहा है। प्रकाश उत्सव के अवसर पर देशभर के गुरुद्वारों में सुबह से ही शबद कीर्तन का आयोजन चल रहा है। गुरु नानक नाम लेवा बड़ी श्रद्धा के साथ सुबह से ही गुरुद्वारों में पहुंच गए और भक्ति भाव के साथ गुरु की महिमा का श्रवण किया। वही गुरुद्वारों को भी विभिन्न प्रकार की लाइटिंग और फूलों से सजाया गया है। जो अपनी अद्भुत छटा बिखेर रहे हैं। सिख धर्म के प्रथम गुरु गुरु नानक देव का यह 548 वां प्रकाश उत्सव है।
इतिहास –
गुरु नानक देव जी का जन्म 14 अप्रैल 1469 कार्तिक पूर्णिमा को उत्तरी पंजाब के तलवारी गांव के हिन्दू परिवार में हुआ था लेकिन इनका लालन पालन मुस्लिम पड़ोसियों के बीच हुआ। गुरु नानक देव शुरू से ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे जिसके कारण एक बार इनकी फसलों को पशुओं ने खराब कर दिया तब उनके पिता ने खूब डांटा लेकिन जब गांव का मुखिया फसल देखने गया तो फसल बिलकुल ठीक थी। तभी से गुरु नानक देव के चमत्कारों की जानकारी सभी को हुई। लोगों को मानवता का पाठ पढ़ाते हुए गुरुनानक देव ने 25 सितम्बर 1539 को करतारपुर में अपना शरीर त्याग दिया। ऐसा माना जाता है कि गुरुनानक देव की अस्थियों की जगह फूल मिले थे। जिन्हें हिन्दू और मुस्लिम शिष्यो ने आपस में बांट लिया था।
सिख धर्म के प्रथम गुरु मूर्ति पूजा और देवी देवताओं की पूजा में विश्वास नहीं रखते थे इसलिए उन्होंने कभी रीति-रिवाजों को नहीं माना और सिख पंत की नीव रखी।
आगरा से नाता –
आपसी भाईचारा और मानवता का सन्देश देने वाले गुरुनानक देव जी का आगरा से भी गहरा नाता है। 1556 में दक्षिण की उदासी से लौटते हुए वो विश्राम के लिए आगरा के लोहामंडी स्थित गुरुद्वारा बांस दरवाजा में रुके थे। गुरु नानक देव के चरण पड़ते ही आगरा की धरती धन्य हो गयी। इसका जिक्र इतिहास के पन्नों में भी अंकित है। बताया जाता है कि जहा गुरुद्वारा बांस दरवाजा है वहा पहले उस स्थान पर एक बगीची थी। उस बगीची के पीलू के पेड़ के नीचे ही गुरुनानक देव तीन दिन तक रुके और दीन दुखियों की सेवा की और रोगियों को ठीक किया तब से उन्हें लोग पीलू वाले बाबा के नाम से भी पुकारने लगे।
गुरुनानक देव ने हमेशा भूखों को भोजन और दीन दुखियों की सेवा करने का सन्देश दिया। इसी कारण से गुरुद्वारे में हमेश लंगर चलता है।