वसंत पर्व वासंती रंग युगों से विवेक और बलिदान का प्रतीक बना हुआ है। वासंती शब्द में एक मस्ती है, इसमें उल्लास की चहक और ज्ञान की महक समाई हुई है। यह मस्ती लौकिक भी है और अलौकिक भी, त्याग बलिदान तो वही कर पाते हैं जिनका ह्रदय भावनाओं से भरे पूरे हैं। विपन्न और दीन भला क्या दान करेंगे। साधन कम हो यह बात और है, दीन होना कुछ और। साधन संपन्न यदि अपने को दीन हीन समझता है तो कुछ मांगने, छीनने और झपट ने की कोशिश में ही लगा रहेगा। इसके विपरीत अपने को भगवान का अंश, प्रतिनिधि समझने वाला, फक्कड़ भी समाज को बराबर कुछ ना कुछ देता ही रहता है। असली चीज यह समझ ही तो है। इसको ज्ञान कहें या विवेक।

विवेक की सरगम बलिदान के गीत में मधुरता बढ़ती है, बलिदान का उद्देश शांति है, संहार नहीं। वसंत पर्व इसी तथ्य की बोध का पर्व है। शांति का प्रतीक श्वेत परिधान धारण करने वाली ज्ञान की देवी मां सरस्वती के अवतरण का पर्व है वसंत पर्व। इन के स्वागत समारोह में समूची प्रकृति वसंती चादर ओढ़ कर आ खड़ी होती हैं। इसलिए आज से, इस क्षण से वसंत पर्व के दिन स्मरण करें, अर्चन करें मां सरस्वती का जो सदज्ञान की अधिष्ठात्री भी है। उनसे कामना करें उस विवेक की जो विकारों को जला दें, जिनके संसर्ग से वसंती मस्ती खड़ी हो जाए। वसंती हवा बहे, रस पैदा करें।
स्वागत है उसका, पर उसके स्वागत में थाल ही सजाए ना खड़े रहे। वासंती बयार को प्रभावशाली और सार्थक बनाने के लिए बसंती अंगार भी प्रज्वलित करें जिससे बलिदानी ज्वाला उठती हो। हर जीवन उसमें तपे, बलिदानी कदम बढ़े पर शांति की स्थापना के लिए और सदज्ञान के प्रसार के लिए…
(डॉ प्रणव पंड्या देव संस्कृति विश्वविद्यालय हरिद्वार के कुलाधिपति हैं)