संसार में असंख्यों ऐसे उदाहरण पाये जाते हैं कि समान साधनों वाले दो व्यक्तियों में से एक उन्नत और महान् बन जाता है और दूसरा यथास्थान एड़ियाँ घिसता हुआ मरा करता है। साधारणतया लोग ऐसी विषमताओं को भाग्य कहकर सन्तोष कर लेते हैं। इसके वास्तविक रहस्य को समझने का प्रयत्न नहीं करते। किसी बात को केवल भाग्य कहकर टाल देना और उसके कारणों की खोज न करना मनुष्य जैसे बौद्धिक प्राणी के लिए शोभनीय नहीं। परमात्मा ने मनुष्य को बुद्धि दी ही इसलिए है कि वह किसी बात पर ठीक-ठीक विचार करके उसका निष्कर्ष निकाले और परिणामों से पूरा-पूरा लाभ उठायें।
सफलता-असफलता, उन्नति और अवनति हानि और लाभ, सुख और दुःख आदि मानव-जीवन के जो भी संयोग हैं, वे उसके व्यक्तित्व की क्षमता पर निर्भर करते हैं। जिसने जिस अनुपात से अनुकूल और जिसने अपने व्यक्तित्व को जितना निकृष्ट, निर्बल और निस्तेज बनाया हुआ है वह उसकी प्रतिकूल सम्भावनाओं का भागी बनता है।
मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण बाह्य परिस्थितियों पर उतना निर्भर नहीं करता, जितना कि अपने प्रति उसके निजी दृष्टिकोण पर। जो व्यक्ति अपने प्रति जिस प्रकार की धारणा रखता है, वह उसी प्रकार का बन जाता है। यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य है कि कोई कितना ही बलवान्, तेजस्वी और स्वस्थ क्यों न हो, यदि प्रतिदिन दो-चार आदमी उससे यह कहते रहें कि तुम तो बड़े ही निर्बल, मलीन और अस्वस्थ दिखाई देते हो तो कुछ ही समय में वह वैसा बन जायेगा।
झूँठे संकेतों, काल्पनिक भयों और निर्मूल शंकाओं के कारण संसार में न जाने कितने व्यक्ति नित्य मरते और बीमार होते रहते हैं। धूर्त भविष्यवक्ता कितने ही भोले-भाले व्यक्तियों को ग्रह-नक्षत्रों, भाग्य-दुर्भाग्य और अशुभ अनिष्टों की झूँठी सूचनायें दे-देकर, भयभीत करते और ठगते रहते हैं।
इस प्रकार जब दूसरों के झूठ-मूठ बहकाने और कहने भर से आदमी प्रभावित होकर वैसा बन जाता है तब अपने प्रति मनुष्य की धारणा कितनी प्रभावपूर्ण होगी, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। अन्य व्यक्ति तो कभी समय, अवसर आने पर अपना विचार व्यक्त कर पाते हैं, किन्तु अपने प्रति अपनी धारणा तो हर समय काम करती है। फिर भला उसके अनुसार बनने में कितना समय लगेगा?
यदि हम अपने प्रति इस प्रकार के विचार करते हैं कि हम निहायत निकम्मे, नालायक और किसी काम के योग्य नहीं हैं, तो हमारी आत्म-शक्ति हमारे मन मस्तिष्क एवं शरीर के समस्त तत्वों को उसी प्रकार का बना देगी जिसके फलस्वरूप हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही नगण्य एवं हेय हो जायेगा। मनुष्य के शक्ति -तत्व यन्त्र की भाँति आज्ञाकारी और छुई-मुई की तरह संवेदनशील होते हैं। क्षुद्रता की सूचना पाते ही वे शिथिल और प्रोत्साहन पाते ही विकसित हो उठते हैं।
इसके विपरीत जब मनुष्य अपने प्रति शुभ विचार रखता है और निरन्तर उसी दिशा में सोचता रहता है, वह एक दिन अवश्य शिवं का अधिकारी बनता है। अपने को सशक्त समर्थ, होनहार तथा भाग्यवान समझने और उसका संकेत आत्मा को देते रहने से वह आपके शक्तितत्त्वों को उसी प्रकार प्रेरित करती और गढ़ती रहती है। यही कारण है कि किसी के विकास में प्रोत्साहन, सराहना एवं प्रशंसा का बहुत गहरा महत्व है।
देखा जाता है कि कमजोर से कमजोर बच्चे प्रोत्साहन और शुभ सूचनायें पाकर बड़े ही कुशाग्र बुद्धि और होनहार बन जाते हैं। प्रोत्साहन पाकर हारती हुई सेनायें जीत जाती हैं, साहस बँधाने से डूबते हुए व्यक्ति किनारे लग जाते हैं और आशा का सम्बल देने से मरणासन्न रोगी जी उठते हैं। सदा शुभ सोचो शुभ करो, शुभ की आकाँक्षा करो, आपका सम्पूर्ण जीवन पवित्र और पुनीत बन जायेगा, आपको सत्य शिव और सुन्दर की प्राप्ति होगी।