बीते हुए कल में आज भी झांक कर देखता हूं तो बाबूजी की स्मृतियां और उनके साथ बीते अनेकों अनगिनत पल आज भी मुझे अपने आस-पास घिरे जीवन से लड़ने की प्रेरणा देते हैं। बाबू जी का देवलोक गमन वर्ष 2017 में 2 अक्टूबर को होने के पश्चात जीवन क्रम के 2 वर्ष ही बीते कि अचानक कोरोना ने पूरे विश्व को अपने आगोश में ले लिया। चारों तरफ एक शांति छा गई कोई चहल पहल नहीं, बस प्रकृति और जीव जन्तु ही इस संसार के कर्ता हो गए। चारों और मृत्यु ने अपने पैर पसार लिए और इंसानी फितरत को प्रकृति से खिलवाड़ करने की सजा भुगतनी पड़ी और ये सिलसिला ढाई वर्ष तक चलता रहा।
हालांकि अभी भी कोरोना पूरी तरह नहीं गया है। अपनी सीख लगातार देने की कोशिश कर रहा है, परन्तु इंसान है कि सुधरना ही नहीं चाहता। माताजी और बाबूजी की दी हुई नसीहत और उनके दिए संस्कार आज भी प्रासंगिक है। आज वो होते तो इन हालातों को देखकर उनके अश्रु न रूकते और कुछ इस तरह से अपनी परिभाषा में कहते–
ये किसने भरी सिसकियां
ये करता कौन रूदन,
ये कौन! जो मेरी समाधि से सर टकराता है
ये किसकी आंखों का पानी, जो पत्थर में आग लगाता है
ये किसने दी आवाज मुझे
किसने मोहनदास करमचन्द गांधी को आज पुकारा
किसने इंगित किया, पुराने संबंधों की ओर
कौन! कि जिसने अतीत को ललकारा
आजादी के दीवाने
आओ! बाहों के घेरे में घिर जाओ
सुधियों की सरगमग गाओ
मुझको भी अक्सर याद तुम्हारी आती
पहले ये बतलाओ
नर होकर भी-
नारी का सा रूप तुम्हारा क्यूं है
पत्थर सी छाती पर आंसू का पर नारा क्यूं है
धरातल से उठकर –
तुम अंबर में बिखर गये
ब्रह्माण्ड सिमट कर आ गया तुम्हारे अंदर
तुम कण कण में उतर गये।
फिर भी एक बात है ऐसी
जो तुम्हें अखरती है
अक्सर ही कुण्ठाओं से घिरे घिरे रहते हो
मज़हब का क्षय रोग हुआ है तुमको
यह क्या कहते हो?
अगर याददास्त अच्छी है तो याद करो
बंटवारे के उन मनहूस क्षणों को
जब मजहब के मापदण्ड से तुमने आजादी नापी थी
घृणा के हाथों बिक गया मनुज
मनुजता मन ही मन कांपी थी
क्या यह सोचकर आज तुम्हारा मन होता बहुत विकल है
कि मानव मानव है
या कि मानव की महज नकल है
यूं अपनी ही नजरों में आप खटकते हो
खुद को खुद ही अपराधी से लगते हो
इसीलिये हो बेचैन
समाधि पर मेरी शीश पटकते हो।
-स्व. कवि बंकट बिहारी “पागल”
(विवेक श्रीवास्तव की तरफ़ से… )